મંગળવાર, 1 નવેમ્બર, 2011

उड़ान

 बहुत सुंदर व रंगीन थी
बड़ा गुमान था जब हवा में थी
औरत की तरह मालिक के
ईशारोँ पर नाचती रही
... जाने किस किस को काटती रही
तरह तरह से काटा
लटकाके भटकाके रेस लगाके
कटी पतंगो को हवा में झोले खाते देख
खुश होती, ईधर उद्यर झूमती
उन की डावाडोल दशा पे खिलखिलाती
एक रोमांटिक पल में इक
बडे पतंग पर मोहित हो गई
उस से 'पेच' लड़ गया
कभी वो गोता लगाता कभी मैं
कभी मैं तन जाती कभी वो
तनातनी में 'गुत्थमगुत्था' हो गए
रसानंद में डूब गई, मगर....
मेरे नियंत्रक का ध्यान जरा सा चुका औ...र मैं उस के हाथ से फिसल गई
मैं 'कट' गई
अब मैं आसमाँ में अकेली थी
भरी महफिल में तन्हा
झोकोँ के साथ ईधर उधर होते होते
गगन से धरा की तरफ आने लगी
तनी पतंगे हाँसी उड़ाती रही
जब जमीं पे पहुँची लूटनेवाले मौजूद थे
मुझे लूटने के चक्कर में झीर झीर कर दिया
फिर किसी ने न उठाया
सड़क पे जहाँ गिरी
सामने दीवार पर लिखा था
'ईतने उँचे कभी न उड़ो कि गिरो तो झीर झीर हो जाओ'
कुमार अमदावादी
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