મંગળવાર, 1 નવેમ્બર, 2011

चार दिशा चार कोने


ये बैठा है उत्तर में तो वो बैठा है दक्खन में
कोई बैठा है पूरब में तो कोई बैठा है पच्छम में

... उत्तर से हम देखेंगे तो नजर जो आए दक्खन में
दक्खन से जब देखेंगे तो नजर वो आए उत्तर में

पूरब से जब नजर करें तो दिखता है जो पच्छम में
पच्छम से जब नजर करें तो दिखता है वो पूरब में

पूरब पच्छम उत्तर दक्खन कहने को है चार दिशाएँ
अब ये सिर्फ दिशा नहीं है बन चुकी है जड़ धाराएँ

अलगाव ईतना इन में है कि बीच में ईन के चार कोने
वायव्य अग्नि ईशान नैऋत्य चार दिशा के चार कोने

लीक से जो थोड़ा खिसका कोना नाम उस को मिला
धारा से जो जरा हटा तो पंथ नाम उस को मिला

दिखलाती है जो दिशाएँ सच सिर्फ उतना न होता
धाराएँ जो सोचती है सच सिर्फ वो भी न होता

सच को गर समझना है तो सब दिशा व कोनो में घूमो
धाराओँ का संगम रचके सच्चाई के मुख को चूमो

एक दिशा पे अटके रहे तो कोनो में जो लटके रहे तो
सच को कभी ना समझ सकोगे मरघट को बस व्यस्त रखोगे
कुमार अमदावादी

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