રવિવાર, 19 ફેબ્રુઆરી, 2012

सूर्यास्त

             डूबतो जोयो सूरज में सांज न दरिया किनारे
             नीकऴेलो चाँद जोयो रात ना दरिया किनारे
                                                      दिलीप श्रीमाली
          ये गालगागा के चार आवर्तन में लिखा गया शेर है। दरिया यानी समंदर, समंदर किनारा शुरुआत और अंत का संगम है। किनारे पर समंदर के साम्राज्य का अंत व मानव आबादी की शुरूआत होती है।
शायर ने शेर में जीवन की दो विपरीत स्थितियों के संगम की; उस से पहले व बाद की स्थितियों की बात कही है।शाम को सूरज के डूबने पर दिन पूरा होता है मगर जीवन रुकता नहीं। रात्रि का आगमन होता है।
ईस शेर को अध्यात्मक अर्थ के साथ जोडा जा सकता है। मृत्यु जीवन का अंत नहीं।मृत्यु बाद कहीं और नवजीवन शुरु होता है।मृत्यु सागर के किनारे की तरह मानवलोक व दिव्यलोक के बीच की सरहद है।
ईसी शेर का राजकीय परिस्थितियों के संदर्भ में अर्थघटन करें तो कह सकते हैं: ताकतवर सूर्य के अस्त के बाद 'कमजोर' चाँद अपना राज्य स्थापित करता है।एक शक्तिशाली सम्राट या साम्राज्य के पतन के बाद छोटे राजा नवाब रंग दिखाते हैँ। छोटे छोटे राज्यों की स्थापना करते हैं।

27।6।10 को जयहिन्द में मेरी कोलम 'अर्ज करते हैं' में छपे लेख का अंशानुवाद

सहारा

यादों का सहारा न होता                            
हमारा गुजारा न होता

विरह रण में, विचरण के सिवा
क्यों दूजा? किनारा न होता!

शिखर' मिलता है, एक ही बार
वो मिलन, दुबारा न होता
'वो' गर चाहता, आईने का;
मैं भी क्या: दुलारा न होता!
 

न लगती तुझे, प्यार में चोट
तो तू, कवि-सितारा न होता
कुमार अहमदाबादी

वेलेन्टाईन को श्रद्धांजली

दिल मेरा हो जाता है तन्हा
पैमाने खाली करने के बाद
चंद मोती टपकते हैं प्याले में
सनम की याद आने के बाद

प्याले में मदिरा नहीं है फिर
छलका क्यों नजर आ रहा है
शायद सपनों का खंडहर मुझे
ईस प्याले में नजर आ रहा है

जीवन के आखरी पल तक
सांसों में उस की याद रहेगी
किस्मत ने क्यों बेवफाई की
होठों पे ये फरियाद रहेगी

पीना चाहता हूँ
जब मैं शराब
प्याले में सनम
नजर आ जाती है
हाथ रुक जाता है
प्याला छलक जाता है
फिर, शराब नहीं
आँसु पीने में मजा आता है

दिल में जो आग लगी है
सनम के बिछड जाने से
क्या बुझ जायेगी वो आग
पैमाने बेतहाशा पी जाने से

दिल के दर्द से सीना
फट जाये चाहता हूँ मैं
ईसलिए अब शराब से
ईतना प्यार करता हूँ मैं

शीशे के प्याले से पीने का
मजा ही कुछ और है यारों
हमें ये पता चलता रहता है
कितना दर्द पी चुके हैं यारों

एकांत में तडपने में
क्या लुत्फ है आप क्या जाने
ज़ख्मों को सहलाने में
क्या लुत्फ़ है आप क्या जाने
रोना पड़ता सनम की चिता पर
तो जरूर ये कह उठते आप कि
दर्द क्या होता है आप क्या जाने

कुमार अहमदाबादी

મનુષ્યતા

                                 સમ્રાટમાં નથી અને દરવેશમાં નથી
                           મારી મનુષ્યતા કોઈ ગણવેશમાં નથી
                                                       ભગવતીકુમાર શર્મા
            ગણવેશ એટલે નક્કી કરેલો પહેરવેશ. તમને ખબર હશે કે સમાજના લગભગ દરેક વર્ગ માટે ખાસ પ્રકારના, ખાસ રંગના ગણવેશ નક્કી કરાયેલા છે. ખાસ કરીને માનવી વ્યવસાયમાં કાર્યરત હોય ત્યારે એ ગણવેશમાં હોય છે. ઘણા વ્યવસાય કે સેવાઓ એવા છે કે ગણવેશમાં ન હોવું; ગેરશિસ્ત મનાય છે. પોલીસો માટે ખાખી કે બ્લ્યુ વર્દી, વકીલો માટે કાળો કોટ નક્કી કરાયેલા છે. ડોક્ટરો, નર્સો તથા એરફોર્સ માટે સફેદ, કુલી માટે લાલ, પાયદળ માટે લીલોતરીને મળતા રંગનો ગણવેશ નક્કી કરાયેલા છે. દરેક સ્કૂલનો પોતાનો આગવો ગણવેશ હોય છે. ઓફીસો શોરૂમોમાં કર્મચારીઓ અને સેલ્સમેનોના વસ્ત્રો સરખા હોય છે. ગણવેશ માનવીનો વ્યવસાય અથવા સામાજીક દરજ્જો દર્શાવે છે પણ દર્શાવે એવા ગણવેશનું નિર્માણ થયુ નથી. માનવતા ગણવેશની મોહતાજ નથી. એ એક સમ્રાટમાં અને એક ફકીરમાં પણ હોઈ શકે છે. બંનેમાં ન હોય એવું ય હોઈ શકે.
ટૂંકમાં ગણવેશ કે અન્ય બાહ્ય દેખાવ માનવીનો દરજજો વ્યક્ત કરી શકે પણ માનવતાને વ્યક્ત ન કરી શકે.
તા.૨૮।૧૦।૨૦૧૦ના રોજ જયહિન્દમાં મારી કોલમ 'અર્જ કરતે હૈં'માં છપાયેલ લેખનો અંશ
અભણ અમદાવાદી

रोशनी

                                   तमाम उम्र जली शम्अ रोशनी के लिये
                            अंधेरा फिर भी हकीकत रहा सभी के लिये
                                                               अक्स लखनवी
           मात्रिक छन्द (लगाल गाललगा गालगाल गागागा) में लिखे गये शेर में शायर ने कठोर वास्तविकता पेश की है। विश्व को रोशन करने के लिये 'सूरज' युगों युगों से अपना कर्तव्य निभा रहा है। मगर फिर भी 'निशा' का अस्तित्व है।
          अषो जरथुष्ट्र, महावीर स्वामी, ईसा मसीह, हजरत मुहंमद, भगवान बुद्ध, गुरु नानक, ओशो तथा अन्य कई महामानवों ने युगों युगों से ज्ञान के दीपक को प्रज्वलित कर रखा है। मगर आज तक मानव के मन में से अज्ञान रुपी अंधकार दूर नहीं हुआ है। आज भी मानव के मन में अंधश्रद्धा व अज्ञान के अँधेरे का अस्तित्व है। जीवन की इस कठोर वास्तविकता को शायर अक्स लखनवी ने सरल शब्दों में पेश की है।

          गुजराती अखबार 'जयहिन्द' में मेरी कोलम 'अर्ज करते हैं' में ता.22।08।2010 के दिन छपे लेख के अंश का हिन्दी अनुवाद।
कुमार अमदावादी

कोशिश

धागे ही चीर बनते हैं
तुक्के भी तीर बनते हैं
कोशिशें करते जो सदा
लोग वो वीर बनते हैं
कुमार एहमदाबादी

જાળીની ઝડપ

હું દસમા માળે રહુ છું અમારી બિલ્ડીંગમાં લોખંડની જાળીવાળી લિફ્ટ છે. જેમાં જાળીવાળા બે દરવાજા હોય છે. રાજસ્થાનનાં એકદમ અંતરિયાળ ગામમાંથી એક કઝીન મળવા આવેલા. તેઓ ડ્રોઈંગરૂમમાંથી વારે ઘડીયે લિફ્ટને જોતા'તાં. મેં પૂછ્યું 'શું થયું. કંઈ મૂંઝવણ છે?' તો તેઓ અચકાતા અચકાતા બોલ્યા "યાર, નીચે લિફ્ટમાં ઘુસી મેં પહેલાં બહારની જાળી બંધ કરી પછી અંદરની બંધ કરી. લિફટ ઉપડી ત્યારે બહારની જાળી ત્યાંની ત્યાં હતી પણ પછી હું દસમા માળે પહોંચ્યો એ પહેલા જાળી કેવી રીતે ઊપર પહોંચી ગઈ?
અભણ અમદાવાદી

दरवाजे की गति

मैं दस मंजिला  टावर की दसवीं मंजिल पर रहता हूँ। टावर में पुराने फेशन की लोहे के जालीदार दरवाजोंवाली लिफ्ट है। उस में जालीवाले दो दरवाजे होते हैं। एकबार राजस्थान के एकदम छोटे से गाँव से मेरे एक रिश्तेदार मिलने आये थे। वे ड्रोइंग-रूम में बैठे बैठे बात करते हुए बार बार लिफ्ट की ओर देख रहे थे। उन के चेहरे पर उत्सुकता के भाव थे। मैंने उन से पूछा "क्या बात है कोई परेशानी है क्या?" वे थोड़े से हिचकते हुए बोले "यार, मैंने एकदम नीचे के मजले पर लिफ्ट में प्रवेश करके पहले बाहर की जाली बंद की फिर अन्दर की जाली बंद की, जब लिफ्ट रवाना हुई बाहर की जाली वहीं की वहीं थी। मगर जब मैं दसवीं मंजिल पहुंचा तब मुज से पहले वो जाली दसवीं मंजिल पहुँच चुकी थी। ऐसा कैसे हुआ ये मेरी समज में नहीं आ रहा है?                                                                                                                                कुमार एहमदाबादी

छल की वेदना

                             हमारे दर्द का कीजे भले न हल बाबू
                       जता के प्यार मगर कीजीए न छल बाबू
                                                            भगवानदास जैन
        जैन साहब की ग़ज़लें बहुत मार्मिक व प्रासंगिक होती है। उन की ग़ज़लों में वर्तमान व्यवस्था की कमजोरीयों प्रति आक्रोश और शोषितों के लिए सहानुभूति होते हैँ।
        ये लगाल गाललगा गालगाल गागागा मात्राओँ में लिखा गया अर्थपूर्ण व बेहतरीन शेर है। शेर कहता है कि आप चाहे मेरी समस्या का समाधान न करें; दर्द का निवारण न करें: पर सहानुभूति दर्शाने के बाद छल मत करना। इन्सान को प्रेम न मिले तो उतनी तकलीफ नही होती; जितनी छल से होती है। इन्सान अभाव के शून्य को सह सकता है। छल से ठगे जाने की पीड़ा को सह नहीं सकता। पहले से घायल दिल को ठगना गिरते तो लात मारने जैसा हो जाता है।

गुजराती अखबार जयहिन्द में मेरी कॉलम 'अर्ज करते हैं' में ता.25।09।2011 को छपे लेख के अंश का अनुवाद
कुमार अमदावादी
अभण अमदावादी

विरासत

               स्वयं को न जो, पहचान पाया जो; वो भाग हूँ मैं
               पड़ा महँगा ये  भूल जाना मुझे नाग हूँ मैं।
                                                   कुमार एहमदाबादी
         इन्सान  कुदरत द्वारा दिए गुण अवगुण जब भूल जाता है उसे भुगतना ही पड़ता है। नाग चाहे अहिंसावादी बन जाये कोई उस का विश्वास नहीं करता। मौका मिलते ही उसे लाठियों से मार दिया जाता है।
               जला सकती हूँ बेवफा को, स्वयं जल रही हूँ।
               शमा के मुलायम ह्रदय में लगी आग हूँ मैं।
        शमा खुद एक आग है। जो खुद जलता है वो औरों को भी जला सकता है। मैंने उस प्रेमिका की पीर व्यक्त की है जो प्रेमी को हर तरह से नुकसान पहुंचा सकती है मगर पहुंचाती नहीं। दिल में आग लगी होने के बावजूद बेवफा को नुकसान पहुँचाने की बजाय खुद जल रही है। ह्रदय पर काबू रखकर किसी को जलाने की बजाय अँधेरे को दूर कर रही है। कुदरत द्वारा दिए गए गुण का दुरूपयोग न करके सदउपयोग  कर रही है।
                अहिंसा के कारन, खो दी चार सिंहो ने ताकत।
                था उपवन कभी, आज; उजड़ा हुआ बाग़ हूँ मैं।
         अहिंसा को मैं भी मानता हूँ। पर एक सीमा के बाद वो कायरता कहलाती है। इस शेर में मैंने भारत के प्रथम महान व् विशाल साम्राज्य मौर्य साम्राज्य व वर्तमान भारत [अशोक के चार सिंह याद आते है?]की परिस्थितियों  की बात की है। मौर्यों ने १३७ साल राज्य कीया था। पहले ९० साल ३ व बाद के ४७ सालों में ९ सम्राटों ने शासन कीया था। तीसरे सम्राट अशोक ने राज्य की नीतियाँ बदलकर शांति की नीतियाँ  अपनाई थी। उस के बाद के सम्राटों ने उस का अनुसरण कीया था। परिणाम ये हुआ की वो क्रमश: क्षीण होते गए। पास पडोश के राजा उन्हें कायर मानने लगे, साम्राज्य को तोड़ने लगे। आखिर साम्राज्य टूट ही गया। कभी कभी मैं सोचता हूँ की मौर्य साम्राज्य जब टुटा होगा तो  स्वर्ग में चाणक्य को कितनी पीड़ा हुई होगी?
      आज अशोकचक्र भारत का राजचिन्ह  है। भारत की नीति शांतिनीति है। परिणाम क्या हो रहा है? पडोशी  देश जब चाहे इस देश में आतंकवादी हमले करवाता है। हमारे पडोशी देश दीमक की तरह देश की सरहदों को कुतर रहे हैं। पर भारत के नीति निर्माताओं की 'आदर्शवादी' नींद खुल नहीं रही।
                मिटा दो सभी पर्व भारत के; जारी है षड्यंत्र।
                 विरासत के वटवृक्ष से, झड रहा फ़ाग हूँ मैं।
       भारत की संस्कृति पर सुनियोजित आक्रमण हो रहा है। वसंत पंचमी तो कब की खो चुकी। उस की जगह वेलेन्टाइन डे ने ले ली है।अब तो रंगों की विकृत असरों के बहाने से होली, ध्वनी प्रदुषण के बहाने से दीवाली और विविध बहानों से पतंगोत्सव को ख़त्म करने का कार्य जारी है। नए साल के आगमन पर सिडनी हार्बर या अमेरोका में फोड़े जा रहे पटाखे उन्हें दिखाई नहीं  देते जो हमें कहते है की पटाखों से ध्वनी प्रदुषण होता है। मजे की, क्षमा कीजियेगा करुणा की बात ये है की भारत का कथित बौद्धिक वर्ग इस में जुड़ा हुआ हैं। जब की वास्तविकता ये है की खुद उसे मालूम नहीं की वे किन हाथों की कठपुतली बना हुआ हैं।
      ये एक निर्विवाद हकीकत है की प्रत्येक साँस हमें मृत्यु के करीब ले जा रही है। लेकिन साँस लेने से मौत पास आ रही है इसलिए हम साँस लेना बंद नहीं करते। ये बात सिद्ध करती है की विकास के साथ विनाश की प्रक्रिया निरंतर चलती है। हम चाहे कुछ भी करें, कितना भी सोचकर करें: उस के साथ विनाश की प्रक्रिया जरुर चलेगी। मौत के डर से क्या हम साँस लेना छोड़ देते हैं? नहीं। तो फिर उत्सवों को, जीवन शैली को, क्यों छोड़ दें? हाँ ये ध्यान रखना जरुरी है की हम किसी को जानबुझकर नुकसान न पहुंचाए। वर्ना भारत की सांस्कृतिक विरासत को ख़त्म होने में देर नहीं लगेगी।

ता.२२/०१/२०१२ के दिन गुजराती अख़बार 'जयहिंद' में मेरी कोलम 'अर्ज़ करते हैं' में छपे लेख का अनुवाद [ कोलम मैं अभण अमदावादी के नाम से लिखता हूँ ]
कुमार अमदावादी - अभण अमदावादी

बस की आत्मकथा

    मैं सरकारी परिवहन विभाग की बस हूँ। आज सुबह मैं अहमदाबाद शहर के इनकम टेक्स चौराहे पर खड़ी थी। उस वक्त मेरे पास एक नई नवेली दुल्हन से बस आकर रुकी। उसने मुज पर आगे से पीछे तक नजर घुमाई और व्यंगात्मक ढंग से हँस पड़ी। मैं आज ऐसी हूँ की मुज पर कोई न हँसे तो अचरज होता है। पिछले चक्के के बाद का ज्यादातर हिस्सा निकाल दिया गया है। खिडकियों से ऊपर का हिस्सा, यात्रीयों के बैठने की सीटें, छत वगैरह निकाल दिए गए है ।अब छत सिर्फ चालक-कक्ष के ऊपर बची है। पहले मैं यात्रियों को लाती ले जाती थी। अब पानी की टंकी ढोने का कार्य करती हूँ।
    पर जब मेरी 'जात-बस' [क्यों जी! जात-भाई या जात-बहन कहने का हक़ सिर्फ तुम इंसानों का है?] ही जब व्यंगात्मक ढंग से हँसी तो कलेजा तार तार हो गया। पर मैं कर भी क्या सकती हूँ? हाँ नई नवेली बस को देखकर मैं इतिहास में चली गयी। आहा हा हा हा ........ क्या सुनहरे दिन थे। फेक्टरी में कई 'चोटें' सहकर सुन्दर सजीला रूप पाकर मैंने बाहर की दुनिया में कदम रखा था। तब मन में कैसे कैसे लड्डू फूट रहे थे। मन में कैसे हिलोळ उठ रहे थे। मुझे एएमटीएस द्वारा खरीदकर परिवहन विभाग के काफिले में शामिल कर लिया गया। मैं जब पहली बार अहमदाबाद आई थी तो इस शहर को देखकर भौंचक्की रह गयी थी। मुझे लगा था कितना आआआआ बड़ा शहर है। हालांकि अब तो उस से दस गुना बड़ा है।
मैं अहमदाबाद की सड़कों पर दौड़ने लगी। 'कर्तव्य-पथ' पर दौड़ने के लिए रोज सुबह वक्त पर हाजिर हो जाती। देर रत तक कर्तव्य-पथ पर दौड़ती थी। यात्रियों को एक स्थान से दुसरे स्थान तक पहुँचाती। अहमदाबाद बहुत सुन्दर व हराभरा शहर है। यहाँ के लोग भी संस्कारी व सज्जन है। मगर ऐसा लगता है की शहर को कभी कभी 'पागलपन' का दौरा पड़ता है। उस वक्त यहाँ के लोगों में एक अजीब उन्माद फ़ैल जाता है जब धार्मिक दंगे फ़ैलते है। दंगो के दौरान हम बसों को बहुत सहन करना पड़ता है। दंगाई तोड़-फोड़ करते हैं, जलाते हैं, सीटें को तार तार कर देते हैं। सच कहूँ; 'बलात्कार' का शिकार सिर्फ औरतें ही नहीं बसें भी होती हैं। कभी कभी मन होता है की मैं शहर के निवासियों से पूछूं की तुम्हारी आपसी लडाई में बसों पर क्यों कहर बरपाते हो?
अहमदाबाद ने मुझे खुशियों के पल भी दिए हैं। 1892 में बने अहमदाबाद के पहले पुल एतिहासिक एलिसब्रिज की दायें बाएं बने नए पुलों का जब उद्घाटन हुआ; तब दायीं ओर बने पुल से गुजरनेवाली पहली बस मैं थी। उस दिन एलिसब्रिज का सिंगार देखने लायक था। एसा लगता था जैसे बुढ़ापे में जवानी फिर से आ गयी हो। सच कहूँ उस दिन मैं उस पर मोहित हो गयी थी। मैंने गाँधी ब्रिज, सरदार ब्रिज व सुभाष ब्रिज को भी बनते हुए देखा है।
      जिस तरह शहर में बदलाव आया है। बसों में भी आया है।आज की बसें कैसी सुन्दर एवं सुविधायुक्त होती है। मैं जब कार्यरत हुई थी बसों में बिजली के लिए बल्ब इस्तेमाल होते थे। अब ट्यूब लाईट होती है। मैं 'लाल बस ' कहलाती थी; अब पचरंगी बसें हैं। आज की बसों में उतरने के लिए दरवाजा एकदम आगे होता है।मुज में निकास द्वार थोडा पीछे था। मेरी पीढ़ी की बसों में चालककक्ष एकदम अलग था। आज की कुछ बसों में दरवाजा एकदम बीचोबीच होता है, जो की दो दरवाजों जितना चौड़ा होता है। मुज में जो दरवाजे थे संकरे थे। आज बसों में रेडियो होता है। मुझे व मेरे चालक को संगीत का आनंद नहीं मिलता था। हाँ, कोई कोई शौक़ीन चालक ट्रांजिस्टर रखता था। मेरी पीढ़ी की बसें पेट्रोल या डीज़ल से चलती थी। जब की आज की ज्यादातर बसें सीएनजी से चलती है। बहुत परिवर्तन हो गया है।
    मुझे गर्व है की मैंने पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्य निभाया है। सब से ज्यादा ख़ुशी मुझे इस बात की है की मैंने कभी एक्सीडेंट नहीं किया। किसी को टक्कर तक नहीं मारी। दंगो के दौरान मैं भी एकबार 'बलात्कार' का शिकार हुई हूँ। लेकिन मैंने दंगाईयों को माफ़ कर दिया है। क्यों की मुझे पता है वे 'राह भटके मुसाफिर' हैं। अपने पथ से भटके हुए हैं। भला सच्ची 'राह' को, सच्चे 'पथ' को मुज से ज्यादा कौन जानता हैं? खुद उन्हें पता नहीं था की वो क्या कर रहे हैं।
    कर्तव्य निभाते निभाते मैं जीवन संध्या के किनारे आ चुकी हूँ। यात्री बस के रूप में तो बहुत पहले छुट्टी पा चुकी हूँ। अब जीवन को हाथों में [जल जीवन ही तो है] लिए लिए घुमती हूँ। कुछ समय बाद पूर्ण निवृत्ति पानेवाली हूँ। निवृत्ति बाद मुझे कबाड़ख़ाने भेज दिया जायेगा। जो की एक तरह से बसों का शमसान हैं। जहाँ मेरा जीवन पूर्ण होगा। भौतिक तत्वों में से बने मेरे शरीर के अस्तित्व को मिटा दिया जायेगा।
ता.01-11-2009 के दिन गुजराती बाल साप्ताहिक 'फूलवाड़ी' में छपी मेरी कहानी यथोचित परिवर्तन के साथ
कुमार एहमदाबादी

રવિવાર, 5 ફેબ્રુઆરી, 2012

नृत्य करते सपने

कविता में शब्द श्रृँगार नारी का सा है
फूलों से लहलहाती फूलवारी का सा है
यहां आँसु भी है आहें भी
फूलों सी कोमल बांहे भी
बच्चों जैसी मुस्कान संग
शब्दों से उठती कराहें भी
कुमार एहमदाबादी

नीलगगन को मंच बनाएँ
शब्दों को पायल पहनाएँ
मन के सपने पूरे कर लें
सपनों को हम मोर बनाएँ
कुमार अमदावादी
शब्दोँ को शरमाने दे
अर्थोँ को रिझाने दे
गीतों ग़ज़लोँ को सावन
झरमर झर बरसाने दे
कुमार अहमदाबादी

સોચ

ખીણમાં જન્મો કે ટોચ પર
જિન્દગી ચાલે છે સોચ પર
અભણ અમદાવાદી

तन्हाई

आँख से टपकनेवाले मोतीयों,
पर बेवफा का नाम लिखा है
मैने सारी तन्हाईयां अपनी
कुएँ सी आँखोँ के नाम लिखी है
कुमार अहमदाबादी

नजर


कत्ल कर नजरों के तीर से, हम; यही चाहते हैं।
सुन ले पर, मर के जीने का अंदाज; हम जानते हैं।
कुमार अमदावादी

ચર્મ બાણ

 થોડી તું પીંખાઈ જા
મારા માં સમાઈ જા
નાજુક ચર્મ બાણથી
ગોરી તું વીંધાઇ જા
અભણ અમદાવાદી

सिंगार की पुकार

                सजनी ऊफ़! ये तेरा सोलह सिंगार
        ये चमकता कजरा ये नैन कटार
        ये रसीले अधर ये पीयूषी नजर
        ये सतरंगी स्वप्नीला आँचल
        लरजती साँस थिरकती धडकन
        पुकार रहे हैं प्रीतम को सजन को
        कह रहे हैं लूट लो चितवन को
        छेड़ो एसे जैसे मैं बाँसुरी हूँ
        प्यास से लबालब अंगूरी हूँ
        अतृप्त अभिसारिका, मयूरी हूँ
        सिंगार को कलात्मकता से
        नजाकत से नफ़ासत से
        मधुरता से कोमलता से
        सुरीली लयात्मकता से मिटा दो।
        कुमार एहमदाबादी