स्वयं को न जो, पहचान पाया जो; वो भाग हूँ मैं।
पड़ा महँगा ये भूल जाना मुझे नाग हूँ मैं।
कुमार एहमदाबादी
इन्सान कुदरत द्वारा दिए गुण अवगुण जब भूल जाता है उसे भुगतना ही पड़ता
है। नाग चाहे अहिंसावादी बन जाये कोई उस का विश्वास नहीं करता। मौका मिलते
ही उसे लाठियों से मार दिया जाता है।
जला सकती हूँ बेवफा को, स्वयं जल रही हूँ।
शमा के मुलायम ह्रदय में लगी आग हूँ मैं।
शमा खुद एक आग है। जो खुद जलता है वो औरों को भी जला सकता है। मैंने उस
प्रेमिका की पीर व्यक्त की है जो प्रेमी को हर तरह से नुकसान पहुंचा सकती
है मगर पहुंचाती नहीं। दिल में आग लगी होने के बावजूद बेवफा को नुकसान
पहुँचाने की बजाय खुद जल रही है। ह्रदय पर काबू रखकर किसी को जलाने की बजाय
अँधेरे को दूर कर रही है। कुदरत द्वारा दिए गए गुण का दुरूपयोग न करके
सदउपयोग कर रही है।
अहिंसा के कारन, खो दी चार सिंहो ने ताकत।
था उपवन कभी, आज; उजड़ा हुआ बाग़ हूँ मैं।
अहिंसा को मैं भी मानता हूँ। पर एक सीमा के बाद वो कायरता कहलाती है। इस
शेर में मैंने भारत के प्रथम महान व् विशाल साम्राज्य मौर्य साम्राज्य व
वर्तमान भारत [अशोक के चार सिंह याद आते है?]की परिस्थितियों की बात की
है। मौर्यों ने १३७ साल राज्य कीया था। पहले ९० साल ३ व बाद के ४७ सालों
में ९ सम्राटों ने शासन कीया था। तीसरे सम्राट अशोक ने राज्य की नीतियाँ
बदलकर शांति की नीतियाँ अपनाई थी। उस के बाद के सम्राटों ने उस का अनुसरण
कीया था। परिणाम ये हुआ की वो क्रमश: क्षीण होते गए। पास पडोश के राजा
उन्हें कायर मानने लगे, साम्राज्य को तोड़ने लगे। आखिर साम्राज्य टूट ही
गया। कभी कभी मैं सोचता हूँ की मौर्य साम्राज्य जब टुटा होगा तो स्वर्ग
में चाणक्य को कितनी पीड़ा हुई होगी?
आज अशोकचक्र भारत का
राजचिन्ह है। भारत की नीति शांतिनीति है। परिणाम क्या हो रहा है? पडोशी
देश जब चाहे इस देश में आतंकवादी हमले करवाता है। हमारे पडोशी देश दीमक की
तरह देश की सरहदों को कुतर रहे हैं। पर भारत के नीति निर्माताओं की
'आदर्शवादी' नींद खुल नहीं रही।
मिटा दो सभी पर्व भारत के; जारी है षड्यंत्र।
विरासत के वटवृक्ष से, झड रहा फ़ाग हूँ मैं।
भारत की संस्कृति पर सुनियोजित आक्रमण हो रहा है। वसंत पंचमी तो कब की खो
चुकी। उस की जगह वेलेन्टाइन डे ने ले ली है।अब तो रंगों की विकृत असरों के
बहाने से होली, ध्वनी प्रदुषण के बहाने से दीवाली और विविध बहानों से
पतंगोत्सव को ख़त्म करने का कार्य जारी है। नए साल के आगमन पर सिडनी हार्बर
या अमेरोका में फोड़े जा रहे पटाखे उन्हें दिखाई नहीं देते जो हमें कहते
है की पटाखों से ध्वनी प्रदुषण होता है। मजे की, क्षमा कीजियेगा करुणा की
बात ये है की भारत का कथित बौद्धिक वर्ग इस में जुड़ा हुआ हैं। जब की
वास्तविकता ये है की खुद उसे मालूम नहीं की वे किन हाथों की कठपुतली बना
हुआ हैं।
ये एक निर्विवाद हकीकत है की प्रत्येक साँस हमें
मृत्यु के करीब ले जा रही है। लेकिन साँस लेने से मौत पास आ रही है इसलिए
हम साँस लेना बंद नहीं करते। ये बात सिद्ध करती है की विकास के साथ विनाश
की प्रक्रिया निरंतर चलती है। हम चाहे कुछ भी करें, कितना भी सोचकर करें:
उस के साथ विनाश की प्रक्रिया जरुर चलेगी। मौत के डर से क्या हम साँस लेना
छोड़ देते हैं? नहीं। तो फिर उत्सवों को, जीवन शैली को, क्यों छोड़ दें?
हाँ ये ध्यान रखना जरुरी है की हम किसी को जानबुझकर नुकसान न पहुंचाए।
वर्ना भारत की सांस्कृतिक विरासत को ख़त्म होने में देर नहीं लगेगी।
ता.२२/०१/२०१२
के दिन गुजराती अख़बार 'जयहिंद' में मेरी कोलम 'अर्ज़ करते हैं' में छपे
लेख का अनुवाद [ कोलम मैं अभण अमदावादी के नाम से लिखता हूँ ]
कुमार अमदावादी - अभण अमदावादी