શનિવાર, 3 ડિસેમ્બર, 2011

है अलग

चाँद अपने आप को, क्यों समजता है अलग?
ढाई चावल रोज वो, क्यों पकाता है अलग?

वो जुदा सब से नहीं, गर जुदा है तो कहे।
उस की धमनियों में क्या खून बहता है अलग?

जी सका ना जीव वो; जो अकेला रह गया:
धर्म वो कैसे जिएगा! जो रहता है अलग॥

जब अकेला होता है, चाँद तब चुप रहता है।
भीड़ अपनी बढते ही, वो गरजता है "अल......ग॥"

सींचता है फूल को बागबाँ ये सोचे बिन।
फूल होकर के बड़ा घर बसाता है अलग॥

ज्ञान को जब से डसा, है विषैले नाग ने।
घर पे शिक्षक; पाठशाला चलाता है अलग॥

सोच-सागर में नहा, हो गये पावन कई।
नाले में नादान तू, क्यों नहाता है अलग॥
कुमार अमदावादी

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