શનિવાર, 3 ડિસેમ્બર, 2011

मंज़र एक दिन

ग़ज़ल [साहित्यालोक द्वारा २००९ में पुरस्कृत ग़ज़ल]


हम ज़माने को दिखायेंगे वो मंज़र एक दिन,
मुठ्ठियों में कैद कर लेंगे समंदर एक दिन.
लो कला के दीप की आराधना के तेल से,
यूँ जलाएँ, रोशनी छू ले वो अम्बर एक दिन.
"क्या मिलेगा ज़िन्दगीभर हादसों से जूझकर?"
वो बुलंदी चाहता था, जो सिकंदर एकदिन.
रेत में इतनी खिलाएं, हम गुलों की क्यारियां,
हो न कल विश्वास ये, थी भूमि बंज़र एक दिन.
चेत जाएँ देखकर, नेपाल के अंजाम को,
हिंद को, वर्ना चुभेगा लाल खंज़र एक दिन,
"भीड़वादी राज" करवाता है कितनी तोड़फोड़,
सच कहे इतिहास सचमुच, हम थे बंदर एक दिन.
अग्नि, घोरी, हत्फ, या ब्रह्मोस को हम तोड़ दें,
द्रश्य वर्ना, ये दिखायेंगे भयंकर एक दिन.
दोस्तों ने, यूँ तराशा है हुनर तेरा "कुमार
अब ग़ज़ल तुज को बनाएगी सिकंदर एक दिन.
कुमार अमदावादी

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